BIBLE MY HEART’S FAVORITE BOOK PART 2 मेरी प्रिय पुस्तक – बाइबल
BEST SCRIPTS MY HEART’S FAVORITE BOOK”BIBLE” I LOVE BIBLE . BIBLE IS LIKE MY SECURITY GUARD . KNOW YOUR BIBLE . मेरी प्रिय पुस्तक-“बाइबिल” KNOW YOUR BIBLE. मेरे कॉलेज के दिनों में जब मैं, ट्रेनिंग कर रही थी, उस दौरान हमारी एक मात्र सुरक्षा कवच हमारी बाइबल ही थी, और हर परीक्षा और डर पर हमने बाइबल में लिखी बातों को अमल में लाकर पास की।
बाइबल 40 लेखकों के द्वारा, 1500 साल की अवधि के दौरान लिखी गई। अन्य धार्मिक लेखों के विपरीत, बाइबल वास्तविक घटनाओं, स्थानों, लोगों और उनकी बातचीत का विवरण देती है जो यथार्थ में घटित हुए। इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं ने बाइबल की प्रामाणिकता को बार–बार स्वीकारा है। लेखकों के लिखने के तरीके और उनके व्यक्तित्व का प्रयोग करते हुए, परमेश्वर हमें बताता है कि वह कौन है और उसे जानने का अनुभव क्या होता है। बाइबल के 40 लेखक, निरंतर एक ही प्रधान संदेश देते हैं: परमेश्वर, जिसने हमें रचा है, हमारे साथ एक रिश्ता रखना चाहता है। वह हमें उसे जानने के लिए और उसपर विश्वास करने के लिए कहता है। WORK- A CALLING OR A CURSE
बाइबल हमें केवल प्रेरित ही नहीं करती, बल्कि हमें जीवन और परमेश्वर के बारे में बताती है। हमारे सभी प्रश्नों के उत्तर ना सही, पर बाइबल पर्याप्त प्रश्नों के उत्तर देती है। यह हमें बताती है कि किस प्रकार एक उद्देश्य और अनुकंपा के साथ जिया जा सकता है। कैसे दूसरों के साथ संबंध बनाए रखे जा सकते हैं। यह हमें परमेश्वर की शक्ति, मार्गदर्शन और हमारे प्रति उसके प्रेम का आनन्द लेने के लिए हमें प्रोत्साहित करती है। बाइबल हमें यह भी बताती है कि किस प्रकार हम अनन्त जीवन प्राप्त कर सकते हैं। https://optimalhealth.in/my-hearts-favorite-bookbible/
Source: Holy Bible (Authorised Version). Lutterworth Press, London (1946)
सम्पूर्ण बाइबल दो भाग में उपलब्ध है ।
नये नियम में 27 पुस्तकें हैं ।पुराने नियम में कुल 39 पुस्तकें हैं ,
पुराने नियम की प्रमुख पाँच पुस्तकें “तौरेत” के नाम से जानी जाती हैं , संभवतः इनके लेखक मूसा नबी को माना जाता है,
12 पुस्तकें इतिहास की पुस्तकें हैं,
जो इस्रालियों, इब्रानीयों, यहूदियों का इतिहास बताता है:
यहोशु , न्यायियों , रूत , पहला और दूसरा शेमुएल , पहला और दूसरा राजा, पहला और दूसरा इतिहास ,एज्रा ,नहेम्याह, और एस्थर, ।
ज़बूर या भजन या गीत की पुस्तकें
अय्यूब, भजन संहिता, नीतिवचन, सभोपदेशक और श्रेष्ठगीत
5 पुस्तकें बड़े भविष्यवक्ताओं की पुस्तकें
12 छोटे भविष्यवक्तायों की पुस्तकें
होशे , योएल , आमोस , ओबध्याय , योना , मीका , नहूम , हबक्कूक , सपन्याह , हाग्गै , जकर्याह , और मलाकी ।
नये नियम में 27 पुस्तकें पायी जाती हैं,
पहली 4 पुस्तकें सुसमाचार की पुस्तकें हैं जो यीशु मसीह के जन्म, सेवा, जीवन चरित्र, म्रत्यु और पुनरुत्थान के विषय की जानकारी हेतु उनके शिष्यों द्वारा लिखीं गईं हैं:
मत्ती रचित सुसमाचार, मरकुस रचित सुसमाचार, लूका रचित सुसमाचार, यूहन्ना रचित सुसमाचार ।
पाँचवी पुस्तक
प्रेरितों के कार्यों का वर्णन करती है।
इब्रानियों नामक पत्री के लेखक अज्ञात हैं, संभवतः पौलूस को ही इब्रानियों का लेखक माना जाता है,
याक़ूब की पत्री यीशु मसीह के भाई याक़ूब ने लिखी है, याक़ूब ने यीशु को बहुत करीब से जाना और मात्र 5 अध्याय की इस पत्री में जीवन के बहुत से सिद्धान्त सरल शैली में लिख दिये , जिसे छोटी बाइबल भी कहा जाता है।
पहली और दूसरी पतरस की पत्री, पहली,दूसरी, और तीसरी यूहन्ना की पत्री,
यहूदा
और अंतिम पुस्तक प्रकाशितवाक्य है।
परमेश्वर की अद्भुत बातें जानने के लिए -मसीही धर्म पुस्तक बाइबिल को पढ़िए ।
https://en.wiktionary.org/wiki/Appendix:Books_of_the_Bible
- पाप क्या है ?
- पाप की उत्पत्ति कैसे हुई ?
- ईश्वर कैसे दिखते हैं ?
- क्या मनुष्य ईश्वर को देख सकता है ?
- क्या ईश्वर की मूर्ति में ईश्वर होता है ?
- ईश्वर ने मनुष्य की रचना क्यों की ?
- ईश्वर का हमारे जीवन में क्या उद्देश्य है ?
पाप क्या है ?
पाप धार्मिक और मानवीय संस्कृति में एक शब्द है जिसका अर्थ होता है “दोष” या “अनुचित कार्य”। पाप व्यक्ति के आचरण या कर्मों को वर्णित करता है जो न्याय और नैतिकता के विपरीत होते हैं और जो उसके और दूसरों के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं।
पाप की परंपरागत धारणा में यह माना जाता है कि मनुष्य के कर्म उसके भविष्य को प्रभावित करते हैं और उसे संसार में दुख और अधमता में फंसा सकते हैं। इस प्रकार, पाप के बढ़ते और जमाव के कारण व्यक्ति दुखी होता है और उसका स्वर्ग प्राप्ति और मुक्ति से वंचित रहता है।
विभिन्न धार्मिक परंपराओं और संस्कृतियों में पाप की परिभाषा और समझ थोड़ी भिन्न हो सकती है, लेकिन आमतौर पर यह नैतिक और धार्मिक नियमों के अनुसार न्यायिक और अनुचित कार्यों को सूचित करता है। उदाहरण के लिए, जानवरों का हत्या, चोरी, मिथ्या बोलना, अहंकार, क्रोध, लोभ, काम आदि कुछ आम पाप की प्रकार हैं जो अनुचित माने जाते हैं।
पाप के विरुद्ध कर्म, जो न्याय और धर्म के अनुसार सही होते हैं, पुण्य के रूप में जाने जाते हैं और उत्तम जीवन के मार्ग को प्रशस्त करते हैं। धार्मिक और नैतिक मान्यताओं के अनुसार, व्यक्ति को पापों से बचना चाहिए और पुण्य के कार्यों का पालन करना चाहिए ताकि वह सुख, शांति, और उच्चतम परम गति को प्राप्त कर सके।
पाप की उत्पत्ति कैसे हुई ?
विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं के अनुसार, पाप की उत्पत्ति व्यक्ति के स्वार्थ, अज्ञान, और अविवेक से संबंधित मानी जाती है। निम्नलिखित कुछ मुख्य कारण पाप की उत्पत्ति में योगदान करते हैं:
1. अज्ञान: अज्ञान या अनज्ञानता पाप की मूल वजह मानी जाती है। जब व्यक्ति सत्य को नहीं जानता, वह गलत कार्यों में जुट सकता है और अच्छे और बुरे कर्मों के बीच भेद नहीं कर पाता है।
2. कामना और आसक्ति: व्यक्ति के मन में विषयों की आकर्षणा और आसक्ति की भावना होने से, वह अपनी स्वार्थ की प्राप्ति के लिए अनुचित कर्मों की ओर प्रवृत्त हो सकता है।
3. मोह और आवेश: मोह और आवेश, जो माया के मोह में प्रवृत्ति के कारण होते हैं, व्यक्ति को अच्छे और बुरे कर्मों के बीच सही और गलत का विवेक कमजोर करते हैं। यह उसे अनुचित कार्यों में धकेल सकता है।
4. अहंकार और स्वार्थ: व्यक्ति का अहंकार, अपने आप को मजबूत, शक्तिशाली और अद्वितीय मानने के कारण, उसे अनुचित कर्मों में लिप्त कर सकता है। स्वार्थपरता भी व्यक्ति को अनुचित कार्यों की ओर प्रवृत्त कर सकती है।
5. क्रोध, लोभ, और अहंकार: नकारात्मक भावनाएं जैसे क्रोध, लोभ और अहंकार भी व्यक्ति को पापी कर्मों की ओर धकेल सकते हैं। ये भावनाएं उसे न्याय और धर्म से भटका सकती हैं।
यह पाप की उत्पत्ति के कुछ सामान्य कारण हैं, हालांकि इसमें अन्य अनुभवों, धर्म और संस्कृति के अनुसार अलग-अलग दृष्टिकोण भी हो सकते हैं।
ईश्वर कैसे दिखते हैं ?
ईश्वर की दृष्टि में विभिन्न धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं में अलग-अलग विचार हो सकते हैं। कुछ लोग ईश्वर को साकार रूप में मानते हैं, जबकि दूसरे उन्हें निराकार और परमात्मा के रूप में स्वीकार करते हैं। आइए, मैं आपको कुछ सामान्य प्रतिष्ठित दृष्टिकोण बताता हूँ:
1. साकार रूप: कुछ लोग ईश्वर को साकार रूप में मानते हैं और उन्हें मूर्ति, मूर्तिमान, देवता, या अवतार के रूप में पूजते हैं। उनके लिए, ईश्वर की प्रतिमा या अवतार से उनके सामर्थ्य, कृपा और दिव्यता की अनुभूति होती है।
2. निराकार रूप: कुछ धार्मिक परंपराएं ईश्वर को निराकार और अविकारी मानती हैं। उनके अनुसार, ईश्वर को केवल आत्मा के रूप में अनुभवा जा सकता है और वह सबसे परे और असीम होता है। इस दृष्टिकोण में, ईश्वर की अनुभूति में मानव का आत्मबोध और आध्यात्मिक अनुभव महत्वपूर्ण होते हैं।
3. साकार और निराकार संयोजन: कुछ धार्मिक परंपराएं साकार और निराकार दोनों रूपों में ईश्वर की पूजा करती हैं। उनके अनुसार, ईश्वर की दृष्टि में वह सामर्थ्य और विविधता का संयोजन होता है। वे ईश्वर को सर्वव्यापी और सबका समर्थन करने वाले शक्ति के रूप में समझते हैं, जो साकार और निराकार दोनों रूपों में व्यक्त होती है।
इन विभिन्न दृष्टिकोणों के अलावा, अनेक लोगों के अनुभव में ईश्वर की उपस्थिति अव्याकृत और अनुभूतिशील होती है। वे ईश्वर को भक्ति, प्रेम, सेवा, नैतिकता और आध्यात्मिक अनुभव के माध्यम से अनुभवते हैं।
यह धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण अलग-अलग हो सकते हैं और व्यक्ति के आचरण, विचारधारा और धर्म परंपरा पर आधारित हो सकते हैं।
क्या मनुष्य ईश्वर को देख सकता है ?
मनुष्य ईश्वर को साकार रूप में देखने की सीमा से परे होता है। धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं के अनुसार, ईश्वर अतीन्द्रिय होते हैं और उन्हें शारीरिक रूप में देखना मानव संभव नहीं है। ईश्वर की उपस्थिति और अनुभूति अधिकांश लोगों के अन्तर्मन में होती है।
हालांकि, कुछ धार्मिक और आध्यात्मिक विचारधाराएं दावा करती हैं कि अद्भुत और आध्यात्मिक अनुभवों के माध्यम से मानव ईश्वर की अनुभूति कर सकता है। ये अनुभव सामान्यतः आध्यात्मिक साधना, ध्यान, मेधावीता, भक्ति, प्रेम और आत्म-संयम के माध्यम से प्राप्त हो सकते हैं।
इसके अलावा, कुछ व्यक्ति ईश्वर की उपस्थिति या आकार को व्यक्तिगत रूप में अनुभव कर सकते हैं जैसे कि धार्मिक अनुभवों, दिव्य दर्शनों, स्पष्टीकरणों, और स्पेशल आध्यात्मिक अनुभवों के माध्यम से। ये अनुभव व्यक्तिगत होते हैं और उनकी व्यक्तिगतता और विशेषता पर निर्भर करते हैं।
अभिसार से कहा जा सकता है कि मनुष्य ईश्वर को सामान्यतः देखने से अलग रूपों में अनुभव करता है, जो धार्मिक, आध्यात्मिक और आंतरिक अनुभवों के माध्यम से हो सकते हैं।
क्या ईश्वर की मूर्ति में ईश्वर होता है ?
विभिन्न धार्मिक परंपराओं और विश्वास प्रणालियों में, ईश्वर की मूर्ति को उसकी प्रतीक्षा और उपासना का माध्यम माना जाता है। इस दृष्टिकोण में, मूर्ति एक साकार प्रतिष्ठा होती है जिसमें ईश्वर की उपस्थिति, शक्ति और कृपा का अनुभव हो सकता है।
मूर्ति मानने वाले व्यक्ति या समुदाय के लिए, मूर्ति एक प्रतिष्ठा होती है जिसके माध्यम से उन्हें ईश्वर के सामर्थ्य और दिव्यता की अनुभूति होती है। मूर्ति को उपासना, भक्ति, पूजा और आराधना के माध्यम से सम्मान और आदर्श के रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, मूर्ति को एक संबोधन या संवाद का माध्यम भी माना जाता है, जहां उपासक ईश्वर से संवाद कर सकते हैं।
हालांकि, महत्वपूर्ण है यह जानना कि मूर्ति या प्रतिमा सिर्फ एक उपासना का माध्यम है और ईश्वर की सीमा से परे है। मूर्ति ईश्वर का संकेत और प्रतिष्ठा है, लेकिन वास्तविकता में, ईश्वर सर्वव्यापी होते हैं और उन्हें उपासना के माध्यम से ही सीमित नहीं किया जा सकता है। इसलिए, यह धार्मिक परंपराओं, मान्यताओं और व्यक्तिगत विश्वास पर आधारित होता है।
ईश्वर ने मनुष्य की रचना क्यों की ?
ईश्वर ने मानव की रचना कई धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं में अलग-अलग तरीकों से की गई है। इस सवाल का जवाब विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं के अनुसार भिन्न हो सकता है, और यह व्यक्ति के विश्वास और धार्मिक दृष्टिकोण पर आधारित होता है। मुख्य रूप से, ये कुछ प्रमुख दृष्टिकोण हैं:
1. परमेश्वरीय इच्छा: इस दृष्टिकोण के अनुसार, ईश्वर ने मानव की रचना अपनी इच्छा और दया के कारण की है। यह दृष्टिकोण कहता है कि ईश्वर मानव को सृजित किया है ताकि उसके माध्यम से वे उन्नति, सुख और आनंद की प्राप्ति कर सकें।
2. भूलभुलैया: कुछ धार्मिक परंपराएं मानती हैं कि मानव ईश्वर के अभिप्रेत खेल का हिस्सा हैं। ईश्वर ने मानव को यहां इसलिए भेजा है कि वे अपनी आत्मज्ञान, स्वतंत्रता और साध्यों को प्राप्त करें। मानव अपने जीवन में अनुभवों के माध्यम से सीखता है और अपने आध्यात्मिक और मानवीय विकास के माध्यम से प्रगति करता है।
3. आदर्श और परीक्षा: कुछ धार्मिक परंपराएं मानती हैं कि मानव की रचना ईश्वर के आदर्श की परीक्षा के लिए हुई है। ईश्वर ने मानव को स्वतंत्र विचार, कर्म और निर्धारण करने की क्षमता प्रदान की है, और मानव इस परीक्षा के माध्यम से अपने कर्तव्यों और धर्म के प्रति सच्ची प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।
ये केवल कुछ दृष्टिकोण हैं और इस विषय पर अनेक अन्य धार्मिक और दार्शनिक विचार भी हैं। व्यक्ति अपने आपके विचार, अनुभव और धार्मिक संदर्भ के आधार पर ईश्वर की मानव की रचना को समझ सकता है।
ईश्वर का हमारे जीवन में क्या उद्देश्य है ?
ईश्वर के हमारे जीवन में अनेक उद्देश्य हो सकते हैं, और इनका विवरण धार्मिक और आध्यात्मिक परंपराओं के अनुसार भिन्न हो सकता है। यहां कुछ मुख्य उद्देश्यों का वर्णन किया गया है:
1. आध्यात्मिक विकास: एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है आध्यात्मिक विकास यानी अपनी आत्मा के संयम, स्वयंविकास, और उच्चतर चेतना की प्राप्ति करना। ईश्वर के माध्यम से, हम अपने आंतरिक भावनाओं, शक्तियों और आध्यात्मिक संज्ञान को विकसित कर सकते हैं।
2. सेवा और प्रेम: ईश्वर के हमारे जीवन में एक उद्देश्य है दूसरों की सेवा करना और प्रेम का विस्तार करना। हमें भागीदारी और समर्पण के माध्यम से सामाजिक और मानवीय सुधार करने का प्रयास करना चाहिए।
3. धर्म और नैतिकता: ईश्वर के उद्देश्य में धार्मिकता और नैतिकता को बढ़ावा देना भी शामिल हो सकता है। हमें सत्य, न्याय, सहानुभूति, दया, ध्यान और शांति के मार्ग में चलने का प्रयास करना चाहिए।
4. सामर्थ्य और स्वयंसेवा: दूसरी उच्च उद्देश्यों के साथ, ईश्वर का उद्देश्य है हमें अपने स्वार्थी भावनाओं को छोड़कर सामर्थ्य, स्वाधीनता और स्वयंसेवा की ओर प्रेरित करना। हमें अपने पूर्ण पोतेंशियल को विकसित करने के लिए प्रयास करना चाहिए और दूसरों की मदद करने का समर्पण करना चाहिए।
ये केवल कुछ उद्देश्यों के उदाहरण हैं और धार्मिक परंपराओं, मान्यताओं और विश्वास प्रणालियों के अनुसार विभिन्न हो सकते हैं। हर व्यक्ति की धार्मिकता और विश्वास प्रणाली विभिन्न होती है, इसलिए उद्देश्य भी अनुभवों और योग्यताओं के अनुसार विविध हो सकते हैं।